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धनबल और बाहुबल बिगाड़ रहा है पंचायत चुनाव की सेहत

किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को लोकतंत्र की इस सबसे निचली इकाई पर इस तरह से होने वाले चुनाव को देखकर मन विचलित होना लाजिमी है।

बिहार में इन दिनों पंचायत चुनाव की प्रक्रिया अंतिम चरण में है।पंच से लेकर जिला परिषद तक के विभिन्न पदों के लिए हो रहे इस चुनाव को लेकर ग्रामीण स्तर पर उत्साह चरम पर है।मुखिया,सरपंच, पंचायत समिति और वार्ड सदस्य बनने के लिए इस बार जो मारामारी हो रही है वह लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है।पंचायत चुनाव में लोगों की सहभागिता भारत में लोकतंत्र के मजबूत जड़ को अवश्य इंगित करता है किंतु जिस प्रकार से इस चुनाव में धन बल और बाहुबल का उपयोग किया जा रहा है वह गम्भीर चिंता को प्रदर्शित करने वाला है।
संयोगवश मैंने इस चुनाव को बहुत करीब से देखा।बिहार में शराबबंदी लागू है।नीतीश कुमार इसकी सफलता के लिए एड़ी चोटी एक किये हुए हैं।पूरा सरकारी महकमा इसके लिए तत्पर है।किन्तु पंचायत चुनाव में जिस तरह से शराब का उपयोग प्रत्याशियों के द्वारा किया गया है वह शराबबंदी का मखौल नहीं तो और क्या है।इसपर विपक्ष के नेता का ध्यान शायद इसलिए नहीं गया क्योंकि बड़ी संख्या में उनके समर्थक भी चुनाव लड़ रहे हैं।आचार संहिता की ऐसी की तैसी इस तरह से की गई कि मानो निर्वाचन आयोग कुछ है ही नहीं।प्रत्याशी नामांकन के दिन से ही दारू-मुर्गा का भोज अपने-अपने समर्थकों के बीच ऎसे कर रहे थे मानो इसके बिना उन्हें जनता का वोट मिलने से रहा।कोई कहीं रोकने टोकने वाला नहीं।अपुष्ट जानकारी पर विश्वास करें तो वार्ड सदस्य का खर्चा औसतन एक लाख से पाँच लाख के बीच था जबकि पंचायत समिति का तीन लाख से दस लाख के बीच खर्च था।वहीं मुखिया जी के खर्च की बात करें तो वह औसतन दस से बीस लाख रुपये तक हुआ है।जिला परिषद सदस्य के लिए आंकलन करना मुश्किल था।किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को लोकतंत्र की इस सबसे निचली इकाई पर इस तरह से होने वाले चुनाव को देखकर मन विचलित होना लाजिमी है।
भारत गाँवों का देश है।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।गांव स्वच्छ और समृद्ध बनेगा तो देश भी स्वच्छ और समृद्ध बनेगा।लेकिन भ्रष्टाचार की बुनियाद पर चुनकर आने वाले लोगों से स्वच्छता और सदासयता की कल्पना नहीं की जा सकती है।धनबल और बाहुबल के आगे अच्छे और सच्चे लोगों की आवाज दब सी गईं।शिक्षा और अच्छी सोच को जातिवाद डस लिया।ऐसे में आदर्श गांव और पंचायत की परिकल्पना करना बेमानी है।
सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिये पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया गया।लोगों को उनकी गावों में सरकार चुनने की स्वतंत्रता दी गई।किंतु पैसे के खेल ने इसे बिगाड़ कर रख दिया है।सरकार ने पंचायत में राशि इसलिये उपलब्ध कराई ताकि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार इसका इस्तेमाल कर सकें।किंतु हो क्या रहा है।आज केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार योजना सार्वभौम बना रही।खासकर बिहार में तो जितनी भी योजनाएं बनाई जा रही है वह सब बिना भेद भाव के सबके लिए है।ऐसे में धन खर्च करने की जवाबदेही स्थानीय स्तर पर देने की जरूरत ही नहीं है।जब हर घर तक नल का जल, हर घर तक पक्की सड़क, हर घर तक पक्का नाला,बिजली, एम्बुलेंस,डोर स्टेप राशन की डिलेवरी आदि कार्य बखूबी अंजाम दिये जा रहे हैं तो फिर अनावश्यक योजनाओं में लूट के लिए बड़ी फौज खड़ा करने की आवश्यकता कहाँ है।सरकार को इन संस्थाओं को वित्तीय अधिकार देने पर विचार करने की जरूरत आन पड़ी है।
हम यह कतई नहीं कह रहे हैं कि सभी चुने हुए लोग भ्रष्ट हैं।हम यह भी नहीं कह रहे हैं कि सारे लोग धन बल और बाहुबल के सहारे ही चुनकर आए हैं।किंतु इस बार के चुनाव में जिस तरह से माहौल बना वह शुभ संकेत नहीं दे रहा है।लोकतंत्र के पहले पायदान को निश्चित रूप से साफ और स्वच्छ रखने की आवश्यकता है।इसके लिए आत्ममूल्यांकन करने की जरूरत है।

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