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आज का प्रसंग नैते ग्रावगुणाः न वारिधिगुणा नो वा नराणां गुणाः ….

नैते ग्रावगुणाः न वारिधिगुणा नो वा नराणां गुणाः । श्रीमद्दाशरथेस्तु

नाममहिमा सद्यस्समुज्जृम्भते ।।

प्रस्तुति:पंडित रविशंकर मिश्र

*रामायण में वर्णन आता है कि पत्थर के ऊपर ‘श्रीराम’-ये तीन अक्षर लिखते हैं, राम-नाम लिख करके पत्थर समुद्र में छोड़ते हैं । राम-नाम में ऐसी शक्ति है-राम-नाम से पत्थर तैरता है, डूबता नहीं है । श्रीराम देख रहे हैं-पत्थर के ऊपर मेरा नाम लिखते हैं, मेरे नाम से पत्थर तैरता है । रामचन्द्रजी ने विचार किया कि मेरे नाम से पत्थर तैरता है तो मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर नहीं तैरेगा ? एक बार मैं प्रयोग करूँ-मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर तैरता हो तो इन वानरों को मैं समझा दूँगा-नाम लिखने का परिश्रम मत करो, मैं पत्थर का स्पर्श कर दूँगा । रामजी को थोड़ी शंका तो हुई-मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर कदाचित् डूब जाय तो ?* *रामचन्द्रजी ने विचार किया*

*अकेला मैं दूर समुद्र-किनारे जाकर एक बार प्रयोग करूँ कि मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर तैरता है, कि डूबता है ? श्रीराम अकेले दूर समुद्र-किनारे गये । आगे-पीछे कोई नहीं है । प्रभु ने निश्चय करके पत्थर उठाया••• । श्रीहनुमानजी महाराज का एक नियम था-कोई भी काम करते हैं, तब हनुमानजी महाराज की दृष्टि राम-चरण में ही रहती है । कभी हनुमानजी की हार हुई ही नहीं। श्रीहनुमानजी महाराज जहाँ गये, वहाँ उनकी जीत हुई है । इसका यही कारण है-हनुमानजी राम-चरण में दृष्टि रखते हैं। आप भी ऐसी आदत डालो । जिस देव की आप पूजा करते हो, उस देव में आँख को स्थिर करो । वैष्णव वह है, जो अपने इष्टदेव को आँख में रखता है । भगवान् को घर में रखना-सिंहासन में रखना ठीक है, उत्तम तो यह है कि भगवान् को आँख में रखो । दो-तीन मिनट हो कि भगवान् का दर्शन करो । भगवान् का स्वरूप आँख से दूर जाय नहीं-हनुमानजी महाराज का ऐसा नियम था। भगवान् में जो दृष्टि रखता है, उसको भगवान् की शक्ति मिलती है । जीव में शक्ति कम है । भगवान् की शक्ति जिसको मिली है, उसकी कभी हार नहीं होती । हार उसकी होती है, जो भगवान् को भूल जाता है । अपनी शक्ति में जो विश्वास रखता है, अभिमान में जो काम करता है-उसको मार पड़ती है । उसकी हार होती है।Rpd हनुमानजी महाराज की कभी हार हुई नहीं है । हनुमानजी महाराज ने विचार किया-मेरे प्रभु समुद्र-किनारे दूर अकेले क्यों गये ? वहाँ क्या करते होंगे ? कदाचित् सेवा में मेरी जरूरत पड़े तो-हनुमानजी महाराज छलाँग मारते हैं । राम जहाँ हैं-रामजी के पीछे आ करके खड़े हो गये । राम तो ऐसा ही मान रहे थे कि यहाँ मैं अकेला ही हूँ, कोई देखनेवाला नहीं है । रामचन्द्रजी ने पत्थर समुद्र में फेंक दिया । वह पत्थर डूब गया । रामजी को आश्चर्य होता है-मेरे नाम से तैरता है, मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर डूब जाता है! चलो ठीक है, यहाँ कोई नहीं है, मैं अकेला ही हूँ-अच्छा है । रामजी ने दूसरा पत्थर फेंका, दूसरा भी डूब गया । राम थोड़े नाराज हुए हैं-मेरे हाथ से फेंका हुआ पत्थर नहीं तैरता है । अब एक बार अन्तिम प्रयत्न करूँ••• । तीसरा पत्थर उठाया, जोर से फेंका । वह भी डूब गया । राम नाराज हुए । रामजी ने पीछे देखा-हनुमानजी* *महाराज हाथ जोड़े खड़े थे। रामचन्द्रजी ने*

*हनुमानजी से पूछा-‘हनुमान! तुम कब यहाँ आये ? हनुमानजी ने कहा-‘आपने पहला पत्थर फेंका, तभी से मैं यहीं खड़ा हूँ । मैंने सब देख लिया है। कोई गिर जाता है तो उसको चोट लगने का दुःख नहीं होता है, उसे गिरते हुए देखनेवाले कितने हैं-इसका दुःख होता है । •••मेरा अपमान हो गया। रामचन्द्रजी ने विचार किया-यह हनुमान ने देख लिया है, वहाँ जा करके सभी को कह देगा कि इनके हाथ से फेंका हुआ पत्थर नहीं तैरता है। प्रभु नाराज हुए हैं। हनुमानजी महाराज रामजी का दर्शन करते हैं। हनुमानजी ने विचार किया-मेरे मालिक नाराज हों तो मेरी सेवा किस काम की ? सेवा तो प्रभु को प्रसन्न करने के लिये है । मैं रामजी का दास हूँ । मैं उनको प्रसन्न करूँगा । हनुमानजी ने हाथ जोड़ करके रामचन्द्रजी से कहा है-‘क्रोध मत कीजिये । यह जो हुआ है, वह बराबर हुआ है । मैंने कथा में सुना है कि जो शरण में आता है, जिसको भगवान् अपनाते हैं, राम जिसको हाथ में रखते हैं-वह तैरता है । मेरे राम जिसको फेंक दें, वह तो डूबनेवाला ही है । यह जो हुआ है-वह बराबर है । आप जिसका त्याग करेंगे, वह तो डूबेगा ही । आप जिसको अपनाते हैं-वह तैरता है ।’ जब ऐसा अर्थ समझाया, राम प्रसन्न हो गये-‘हनुमान! तुम बड़े बुद्धिमान् हो । मैं जानता नहीं था-मैं तो ऐसा ही मानता था कि तू बड़ा बलवान् है । न….न…. जैसा बलवान् है, वैसा ही मेरा हनुमान बड़ा बुद्धिमान् भी है ।’ रामचन्द्रजी प्रसन्न हुए ।*

*हनुमानजी को रामचन्द्रजी ने पदवी दान की है-‘जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । मेरा हनुमान सभी बुद्धिमान् पुरूषों में श्रेष्ठ है-बुद्धिमतां वरिष्ठम् । हम सब लोग ‘बुद्धिमतां कनिष्ठम्’ हैं । मानव की बुद्धि बहुत हलकी होती है । प्रायः मानव बुद्धि का उपयोग पैसे के लिये करता है । पैसा तो वेश्या भी कमाती है । कितने ही लोग बुद्धि का उपयोग सुख भोगने के लिये करते हैं-मुझको ज्यादा सुख मिले, मैं सुखी हो जाऊँ । …वेश्या भी सुख भोगती है*
आचार्य भरत तिवारी

 

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