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आज का प्रसंग

माघ माहात्म्य

अध्याय – 25

प्रस्तुति:पंडित रविशंकर मिश्र

पिशाच कहने लगा कि हे मुनि! केरल देश का ब्राह्मण किस प्रकार मुक्त हुआ यह कथा कृपा करके विस्तारपूर्वक कहिए। देवद्युति कहने लगा केरल देश में वासु नाम वाला एक वेद पारंगत ब्राह्मण था। उसके बंधुओं ने उसकी भूमि छीन ली जिससे वह निर्धन और दुखी होकर अपनी जन्मभूमि त्यागकर देश-विदेश में घूमता किसी व्याधि से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसका कोई बांधव न होने के कारण उसकी और्घ्व वैदिक क्रिया नहीं हुई और न ही उसकी दाह-क्रिया हुई। इस प्रकार क्रिया के लोप होने से निर्जन वन में प्रेत होकर चिरकाल तक फिरता रहा। शीत, ताप, भूख-प्यास के दुख से हाहाकार करता हुआ वह नंगे शरीर रोता–फिरता था परंतु उसको कहीं सद्गति नहीं दिखाई देती थी।
सर्वथा दान न देने से वह अपने कर्म फल को भोगता था। जो लोग अग्नि में आहुति नहीं देते, भगवान का पूजन नहीं करते वे आत्मविद्या का अभ्यास नहीं करते, अच्छे तीर्थों से विमुख रहते हैं। जो लोग दुखी लोगों को स्वर्ण, वस्त्र, तांबूल, रत्न, फल तथा जल नहीं देते तथा छल-कपट से जीविका प्राप्त करने वाले, दूसरों तथा स्त्रियों का धन हरने वाले, पाखण्डी, कुटिल, चोर, बाल-वृद्ध तथा आतुर और स्त्रियों पर निर्दयता करने वाले, आग लगाने वाले, विष देने वाले, झूठी गवाही देने वाले, कुमार्ग पर चलने वाले, माता-पिता, भाई, बहन, संतान तथा अपनी स्त्री का त्याग करने वाले, जो सब तीर्थों में दान लेते हैं, पालन करने वाले स्वामी को त्यागने वाले, गौर तथा भूमि के चोर, वेदों की निंदा करने वाले, वृथा द्रोह करने वाले, प्राणियों की हिंसा करने वाले, देवता, गुरु की निंदा करने वाले यह सभी बारम्बार प्रेत, पिशाच, राक्षस तथा बुरी योनियों में जन्म लेते हैं।
अतएव बुरे कर्मों से बचकर धर्म के कार्य तथा यज्ञ, दान और तप आदि करने चाहिए क्योंकि कर्म फल अवश्यमेव मिलता है। इस प्रकार प्रेत की गति देखकर पाप कर्म कदापि नहीं करने चाहिए। ब्राह्मण कहने लगा कि इस प्रकार उस केरल ब्राह्मण ने उस पर्वत पर अधिक समय व्यतीत करके एक मार्ग में एक पथिक को देखा जो दो गगरियों में त्रिवेणी का जल लिए हुए था। आनन्दपूर्वक भगवान के चरित्र का गान कर रहा था। प्रेत ने उसका मार्ग रोककर कहा कि तुम डरो मत। इस गगरी का जल मुझको पिलाओ नहीं तो मैं तुम्हारे प्राण ले लूंगा। देवद्युति कहने लगा कि दुखी, दुर्बल, नंगे, मुरझाए हुए, तुम कौन हो? पैरों से पृथ्वी को स्पर्श न करके चलते हो। लोमशजी बोले प्रेत यह वचन सुनकर कहने लगा कि मेरे ऎसा होने का कारण सुनो।
मैंने कभी ब्राह्मणों को दान नहीं दिया, अत्यन्त लोभी, क्रियाहीन, दूसरे के अन्न से पलने वाला था। मैंने कभी किसी को भिक्षा नहीं दी, न दूसरे के दुख से दुखी हुआ। प्यासे प्राणियों को मैंने कभी जल नहीं पिलाया, मैंने कभी छाता, जूता दान नहीं किया, न किसी को जल का पात्र, पान या औषधि किसी को दी। न मैंने अपने घर में कभी किसी अतिथि को ठहराकर उसका सत्कार किया। अंधे, वृद्ध, अनाथ और दीनों को मैंने कभी अन्न से संतुष्ट नहीं किया और न ही किसी रोगी को मुक्त किया न कभी ब्राह्मणों को दान दिया, न कभी अग्नि में हवन किया। वैशाखादि मास में किसी को ठंडा जल नहीं पिलाया, न ही मैंने बड़ या पीपल का कोई वृक्ष लगाया। न किसी प्राणी को बंधन से छुड़ाया, कभी कोई व्रत करके शरीर को नहीं सुखाया।
इस कारण मेरा पूर्व जन्म सब बुरे कार्यों में ही व्यतीत हुआ। मेरे पूर्व जन्म के कर्मों से ही मेरी यह गति हुई है। इस वन में व्याघ्र, भेड़िए से बचा हुआ मांस तथा जंतुओं के खाने से गिरे हुए फल, वृक्षों पर लगे हुए सुन्दर फल तथा झरने का सुन्दर जल सब ही मिलते हैं परंतु देव इच्छा से मैं कुछ नहीं खा सकता। सर्प की तरह केवल पवन भक्षण करके जीवन व्यतीत करता हूँ। बल, बुद्धि, मंत्र पुरुषार्थ से लाभ-हानि, सुख-दुख, विवाह, मृत्यु, जीवन, भोग, रोग तथा वियोग में केवल भाग्य ही कारण होता है। कुरुप, मूर्ख, कुकर्मी, निंदित तथा पराक्रम से हीन मनुष्य भी भाग्य से ही राज्य भोगते हैं। काणे, लूले, लंगड़े, नीतिहीन, निर्गुण नपुंसक भाग्य से राज्य प्राप्त करते हैं।
पर्वत पर भी बलवान राक्षस पिशाच रहते हैं, जिनमें से कभी-कभी कोई-कोई कहीं-कहीं वन में फिरते हुए अपने कर्म के अनुसार अन्न, जल प्राप्त करते हैं परंतु आपको उनका भय नहीं होना चाहिए क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों की उनकी पवित्रता ही रक्षा करती है। ग्रह, नक्षत्र, देवता सर्वथा धर्मात्माओं की रक्षा करते हैं। यह पिशाच आप जैसे भक्त की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देख सकते।
जो नारायण भगवान की भक्ति से पवित्र रहता है उसको प्रेत, पिशाच, पूतना कोई बाधा नहीं दे सकते। भूत, बेताल, पिशाच, गंधर्व काकिन, शाकिनी, ग्रह रेवती, यज्ञ मातृ ग्रह, भयंकर ग्रह, कृत्या, सर्पकुष्माण्ड तथा दूसरे दुष्ट जंतु पवित्र वैष्णव की तरफ देख भी नहीं सकते। जिसकी जीव्हा पर गोविंद का नाम, हृदय में वेद तथा श्रुति विद्यमान हैं जो पवित्र और दानी हैं उनको कभी भय नहीं हो सकता। हे ब्राह्मण! इस प्रकार कर्मों का फल भोगता हुआ मैं यहाँ रहता हूँ। ऎसा सोचकर मैं शोक नहीं करता। एक बार मैं जंवालिनी नदी के किनारे पर गया था वहाँ पर घूमते हुए मैंने सारस के वचनों को सुना था।
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“जय जय श्री राधे”
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